तीसरा कदम: संगठन विस्तार। लक्ष्य लिए हुवे हैं कि १० लाख सदस्य बनाएंगे। ये हुइ न बात। १० लाख सदस्य अगर बना लेते हैं तो नेपाली सबसे बड़ी पार्टी ही बन जाएगी। सारे नेपाल पर शासन कर सकते हैं तो फिर मधेस अलग देशकी क्या जरुरत?
चौथा कदम: फोरम और राजपा के साथ एकीकरण। उतना करने के बाद उसके बाद के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बन जाएगी। उस समय तक में या उसके तुरन्त बाद तक में मधेस का राजनीतिक समस्या समाधान हो जाने की प्रचुर संभावना है। देशकी सबसे बड़ी पार्टी बन गए फिर भी मधेसका समस्या समाधान अगर आप नहीं कर पाए तो उसके बाद के चुनाव में आपकी हार होनी चाहिए।
पाँचवा कदम: आर्थिक क्रांतिका नेतृत्व। सिर्फ मधेस में ही नहीं सारे देश में। और सिर्फ नेपाल में ही नहीं सारे दक्षिण एशिया में।
छठा कदम: दक्षिण एशिया का राजनीतिक एकीकरण। विश्व शक्ति बनना।
जनमत पार्टी को नाम मा अब अगाडि बढ्ने निर्णय गरे पछि अब धरपकड़ को मुसा बिरालो को खेल समाप्त भएको छ। जेल जाने अनि निस्किने। जेल जाने फेरि निस्किने। त्यो अध्याय समाप्त भएको छ।
विवेकशील र साझाले गर्न नसकेको सीके को संगठन ले गर्छ। सीके को संगठन व्यापक छ। नया पुस्ता को सीके प्रति आकर्षण छ मधेसमा। मधेस अलग देश को भावनात्मक नारा र कल्पना जगाउने उद्घोष अब रहेन। अब वस्तुपरक र बढ़ी व्यावहारिक तरिकाले अगाडि बढ्नुपर्ने हुन्छ।
सीके ले लिखित र मौखिक तवरले मधेस प्रतिको विभेद को जस्तो विश्लेषण गरेका छन त्यो मधेस आन्दोलनको इतिहास मा अभुतपूर्व छ। पठनपाठन मा लागेको रिसर्च गरिरहेको विज्ञ ले जस्तो लेखे बोलेका छन। एउटा इतिहासकारले जस्तो मधेसको इतिहास लेखेका छन। त्यस आधारमा सीके को बहुआयामिक प्रतिभा सामुन्ने आएको छ। यो नेहरू ले पुस्तक लेखे जस्तो, वीपी कोइराला ले लेखे जस्तो। त्यो केटेगरी को प्रतिभा देखिएको हो।
त्यति मात्र हुँदो हो त राजनीतिक पहुँच सीमित नै हुँदो हो। सीके ले संगठन निर्माण गर्नमा पनि विलक्षण प्रतिभा देखाएका छन। विज्ञ होइन वास्तवमैं राजनेता नै हुन भन्ने प्रष्ट पारेका छन।
अहिलेसम्म मधेस अलग देशको नारा मुनि जे जति राजनीतिक उर्जा जम्मा भएको छ त्यो केही पनि खेर गएको छैन। र अहिलेको कदमले मधेस अलग देश को आईडिया लाई दफ़न गरेको भन्न पनि मिल्दैन। मधेसका जनता मधेस अलग देश को नारा का साथ मधेस बंद गरोस त आजको भोलि जनमत संग्रह पाइने हो। तर मधेस त्यहाँ रहेको देखिएन। कमसेकम अहिले देखिएन।
१० अथवा २० वर्ष पछि मधेसको सेंटिमेंट बदलिएछ भने मधेस अलग देश बन्न सक्छ। मैले देखेको तर त्यसका लागि विश्व राजनीति मा बर्लिन को पर्खाल भत्किने साइज को भुकम्प आएर भारत र चीन एक बाट १०-२० देश बन्नुपर्ने हुन्छ। त्यसको संभावना म देखिराखेको छैन। बरु दक्षिण एशिया को राजनीतिक एकीकरण हुने संभावना बढ़ी छ।
भने पछि नेपालको दायरा भित्र चुनावी राजनीति को बाटो खुलेको हो।
संगठन निर्माण को कुरा छ। यो जति बढ़ी राम्रो गर्न सकियो जति बढ़ी गर्न सकियो त्यति टाढा पुगिने हो। फोरम र राजपा सँग एकीकरण नै गर्ने हो भने पनि अहिले व्यापक संगठन निर्माण नै गर्नुपर्ने हुन्छ।
अब मोटामोटी फोरम, राजपा र जनमत पार्टी को एजेंडा र आधार बेस उस्तै उस्तै देखियो। ओवरलैप (overlap) भयो। भने पछि एकीकरण गर्नै पर्छ। नत्र भने चुनावी घाटा पनि छ, राजनीतिक घाटा पनि छ। फोरम र राजपा ले खोजेको संविधान संसोधन को मुद्दा नै अब जनमत पार्टी को मुद्दा बनेको छ।
त्यस मुद्दा को वरिपरि जनमत गोलबंद गर्ने काम सीके ले गर्नुपर्छ। फोरम र राजपा का नेता हरु संविधान संसोधन त भन्छन तर त्यसका मुद्दा हरु भित्र पस्दैनन। बुंदा बुंदा मा गएर, आफ्ना तर्क हरु निरन्तर पेश गरेर जन अभिमत आफ्नो पक्षमा पार्दै जानुपर्ने हुन्छ। नेकपा का लागि निल्नु न ओकल्नु पार्दिनुपर्ने हुन्छ।
गाड़ी को बिभिन्न गियर जस्तै राजनीतिक संगठन को पनि बिभिन्न गियर हुन्छ, हुनुपर्छ। अहिले आंदोलन पनि होइन, चुनाव पनि होइन। अहिले त वार्ता को स्पिरिट मा जानुपर्ने हुन्छ। केपी ओली ले गर्दैन भने डेढ़ वर्षमा प्रचंड प्रधान मंत्री भए पछि गर्छ कि भन्ने सोच्नु पर्ने हुन्छ। वार्ता मा जाँदा दुबै पक्षले एकले अर्को कुरा सुन्न भरमग्दुर प्रयास गर्नु पर्ने हुन्छ। मीडिया मा पोस्चरिंग गरेर हुँदैन।
संगठन निर्माण देखि लिएर संविधान संसोधन को वार्ता सम्म सीके ले अहम् भुमिका खेल्न सक्छन। संगठन निर्माणमा कम्प्युटर को प्रचुर प्रयोग एउटा प्रयोग हुन सक्छ। तर त्यो दुबै भन्दा ठुलो हो तीन संगठन को एकीकरण। तीन पार्टी को एकीकरण ले संगठन निर्माण पनि गर्छ, संविधान संसोधन को संभावना पनि बढाउँछ, र संविधान संसोधन गर्न बाँकी रहने मुद्दा हरु बटुलेर त्यस पछिको चुनाव स्वीप गर्न पनि सघाउँछ।
फोरम, राजपा र सीके राउतको संगठन लाई एकीकृत गरेर बनाइएको एउटै राजनीतिक पार्टीले देशको राजनीति मा निर्णायक भुमिका खेल्न सक्छ। संघर्ष काठमांडु को सत्ता सँग मात्र छैन। संघर्ष आफ्नो पक्ष भित्र पनि छ। बाह्य र आतंरिक दुबै किसिमको संघर्ष गर्न तैयार हुनुपर्ने हुन्छ।
पहिलो संविधान सभाको अन्त्य तिर चितवन बाहेक एक मधेस दो प्रदेश को प्रस्ताव आउदा स्वीकार नगर्नु गल्ती थियो भनेर आत्मालोचना गरेको खोइ मधेसी नेता हरुले? जनतासँग अंतिम बलिदान को अपेक्षा राख्ने, आफुसँग भने सकुशल वार्ता गर्ने कलाको पनि अपेक्षा नराख्ने?
सात प्रदेश को नक्शा जुन अंततः पारित पनि भयो र लागु पनि भयो त्यो पहाड़ी पार्टीका नेताहरुले कोरेको हुँदै होइन। पोखरा बाहेक प्रत्येक प्रदेश राजधानी मधेसमा राखिएको छ। मधेसलाई माइनस नै गर्ने ध्येय हो भने राजधानी सकेसम्म मधेसमा नराख्ने सोच हुनुपर्ने। छैन। त्यो त स्थायी सत्ताका ब्यूरोक्रैट हरुले कोरेको नक्शा हो। काठमाण्डु छोड़नै परे सुगम ठाउँ मात्र जाने सोंच हो। सात प्रदेश को नक्शा त स्थायी सत्ताले कोरेको नक्शा हो। विराटनगर, जनकपुर, हेटौंडा, भैरहवा, सुर्खेत, धनगढ़ी: प्रदेश राजधानी जति सबै मधेसमा। एउटा पोखरा चाहिं परेन। तर पोखरा लाई दुर्गम ठाउँ भन्न मिल्दैन।
एक मधेस एक प्रदेश, पछि एक मधेस दो प्रदेश खोजेका हरुले अन्त्यमा त देशका सात मध्ये ६ वटा प्रदेश पाएको देखियो। सात मध्ये ६ वटा राजधानी।
काठमाण्डु निजगढ फ़ास्ट ट्रैक बने पछि र निजगढ अन्तर्राष्ट्रिय विमानस्थल बने पछि देशको अर्थतंत्र को सेण्टर ऑफ़ ग्रेविटी काठमाण्डु बाट सरेर मधेस पुग्छ स्वतः कुरा। भने पछि संघीयता को सेण्टर ऑफ़ ग्रेविटी पनि सात मध्ये ६ राजधानी मा। देशको अर्थतंत्र को सेण्टर ऑफ़ ग्रेविटी पनि।
मधेस हारेको होइन। मधेस ले केन्द्र मा झण्डा गाड्ने तरखर गर्दैछ।
हाइड्रो हाइड्रो भन्छन। हाइड्रो भन्दा अब सोलर को जमाना आउँदैछ। उर्जा को क्षेत्रमा मधेस नम्बर वन हुन्छ। पोल्ने घाम पो लाग्छ मधेसमा।
स्वतंत्र मधेस गठबंधन के मेरे समस्त साथी, और मधेस की जनताको मेरा हार्दिक अभिवादन।
काठमांडु से मैं कुछ ही दिन पहले लौटा हुँ। हमारे संगठन और नेपाल सरकार के बीच जो ११ बुँदे सम्झौता हुआ वो तो आप सबके सामने कई दिनों से है। लेकिन उसके बारे में अभी भी तरह तरह के शंका उपशंका प्रकट हो रहे हैं। इधर भी हो रहे हैं और उधर भी। तो मैंने सोंचा आप सबके सामने कुछ बातें स्पष्ट कर दु।
लक्ष्य मेरा सदा से रहा है कि मधेसी जनताको समानता और समृद्धि मिले। उस लक्ष्य पर मैं बिलकुल बरक़रार हुँ। उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए राजनीतिक धरातल का तथ्यपरक अध्ययन करते हुवे आगे बढ़ना होता है। रणनीति समय समय पर बदलने होते है। आप बंद घड़ी नहीं बन सकते हैं जो दिन में सिर्फ दो बार सही समय दे।
मधेस आंदोलन के इतिहास में स्वतंत्र मधेस गठबंधन ने अभी तक जितने कार्यक्रम किए वो एक मिशाल बन के रह गया है। हम अहिंसाके मार्ग पर अनुशासित ढंग से आगे बढ़ते रहे हैं। जब उन्होंने हम पर लाठी उठाया हमने उन्हें फुल अर्पण किया। हमने किसी पर इट नहीं फेका कभी भी। हमारा संघर्ष किसी समुदाय के विरुद्ध कभी भी नहीं था, अभी भी नहीं है। राजनीतिक समानता प्रत्येक मानवका जन्मसिद्ध अधिकार है। नेपालके संविधान में लिखा गया है मानव अधिकार। लेकिन मधेसी अभी भी उससे वंचित हैं। इस बात को नेपाल सरकार ने स्वीकार किया है।
इस सहमति की एक बड़ी उपलब्धि ये भी रही है कि हमारे कुछ साथी सालो से जेल में थे। वे सब मुक्त होने जा रहे हैं। मैं चाहुँगा वो सब फिर से हमारे संगठन में सक्रिय हो जाएँ। हमारा मंजिल मधेसीको समानता और समृद्धि तक पहुँचाना है। हम अभी वहाँ तक नहीं पहुँचे हैं। हमें डटे रहना है।
मधेसका अपना एक स्पष्ट भुभाग है। मधेसको अगर अलग देश बनाया जाए तो वो दुनिया के बहुसंख्यक देशों से बड़ा देश ही बनेगा। काठमांडु के सत्ता ने मधेस आंदोलन से समझौता करने लेकिन समझौता पालन न करने का नाटक बार बार किया। उस परिस्थिति में मधेस अलग देशके अलावे दुसरा रास्ता नहीं दिख रहा था। लेकिन हमारा प्रमुख लक्ष्य मधेस अलग देश कभी नहीं था। मुख्य उद्देश्य सदैव रहा है मधेसी को समानता और समृद्धि तक पहुँचाना। मधेस अलग देश तो वहां तक पहुँचने का साधन था।
उद्देश्य नहीं बदला जा सकता। लेकिन साधन बदला जा सकता है।
क्रान्ति के बल पर जनमत संग्रह की मांग हो तो वैसी क्रांति हुइ नहीं। केंद्र सरकार भी और प्रांतीय सरकार भी जनमत संग्रह विरुद्ध खड़े मिलते हैं। नेपालके संविधान में ही जनमत संग्रह का प्रावधान नहीं है। कमसेकम उस किस्मका जनमत संग्रह जैसा कि हम चाहते थे उसका प्रावधान नहीं है। भु-राजनीति भी बड़ी बात होती है। दोनों पड़ोसी देश अपने ही आतंरिक कारणों से इस मुद्दे पर जनमत संग्रह के रास्ते को रोके हुवे हैं ऐसा प्रतीत होता है।
हमने अपने आपको एक मोड़ पर खड़े पाया। मधेसी को समानता और समृद्धि तक पहुँचाना है तो अब आगे कैसे बढ़ा जाए? जिस तरह प्रचंड के लिए माओवादी संगठन को हिंसाका रास्ता छोड़ना एक बड़ा कदम था, एक अकल्पनीय पर सही कदम था उसी तरह हम इस नतिजे पर पहुँचे कि मधेसी को समानता और समृद्धि तक पहुँचाने का जो हमारा लक्ष्य है उससे अगर जुड़े रहना है, अगर उस लक्ष्य तक जल्दी से पहुँचना है तो हमें अपना साधन बदलना होगा। हमें थोड़ा कोर्स करेक्शन करना होगा। हमने मधेसी को समानता और समृद्धि तक पहुँचाने के अपने लक्ष्य को और मजबुती से पकड़ने के लिए अभी के लिए मधेस अलग देश के एजेंडा को बैकबर्नर पर रख दिया है। वो अब एक दुर का लक्ष्य रह गया है।
अभी हम अपने संगठन को एक नया नाम देकर, एक पार्टी का रूप देकर महाधिवेशन की ओर ले जाएंगे। काफी आतंरिक छलफल के बाद नाम तय किया गया है मिशन मधेस। पार्टी का नाम है मिशन मधेस। हम सड़क से संसद तक, सोशल मीडिया से मास मीडिया तक, देश से विदेश तक, हर संभव तरिके से अपने लक्ष्य को प्राप्ति करने में जुटे रहेंगे। आप लोगो ने अभी तक साथ दिया। अब आगे भी साथ दिजिए। हमारा संगठन अब पुर्ण रूपसे खुलकर अपना काम करेगी। संगठन विस्तार करेगी। चुनाव लड़ेगी।
हम चाहेंगे हम संगठन विस्तार करें और विचार मिलने वाले दलों से मिल के मोर्चा बना के आगे बढ़ें। बात अगर आगे बढ़ती है तो हम सांगठनिक एकीकरण के लिए भी तैयार रहेंगे। हमें लगेगा लक्ष्य तक पहुँचने के लिए तीन चार अलग अलग पार्टी के जगह सिर्फ एक पार्टी हो तो ज्यादा अच्छा है तो हम उसके लिए तैयार रहेंगे। क्यों नहीं? मंजिल एक और राही दो फिर प्यार कैसे न हो?
अंततः फोरम, राजपा, हृदयेश त्रिपाठी समुह र सीके को गठबन्धनलाई एउटै राजनीतिक पार्टी नै बनाए पनि प्रथम कदम भने सीके राउतले आफ्नो पार्टी खोल्ने हुन सक्छ। त्यस नया पार्टीको नाम मिशन मधेस राख्ने कि? यसले खुला रूपले संगठन विस्तार गर्न मार्ग प्रसस्त हुन्छ।
हृदयेश त्रिपाठी समय समय मा मीडिया मा आएर जनगिंछन। मैले क्षेत्रीय पार्टी छोड़ें राष्ट्रिय पार्टी समाते ताकि राष्ट्रिय पार्टी ले संविधान संसोधन गरोस तर मैले त्यो राष्ट्रिय पार्टीको सदस्यता लिएको छैन, संविधान संसोधन गरेकै छैन कसरी सदस्यता लिने!
आधुनिक मधेसी आन्दोलनमा वास्तवमा गजेंद्र नारायण सिंह पछिको सबैभन्दा पुरानो मान्छे हृदयेश। त्यो मेरो निजी प्रत्यक्ष ज्ञान नै हो। र अहिलेको कदमलाई मैले न विचलन मानेको छु न वेदानन्द झा प्रवृति। पार्टी भन्दा जनता माथि हो। तर दलीय राजनीति गर्ने ले एउटा न एउटा पार्टी समाउनै पर्छ। अहिले हृदयेश पानी बिनाको माछो, पार्टी बिनाको नेता बनेका छन। २०४६ पछि नै लगातार देखिएको कुरा, हृदयेश संसदीय राजनीतिमा रमाउने तर दलभित्रको राजनीति सकेसम्म ऑउटसोर्सिग गर्ने मान्छे भएकोले यो अवस्थामा आइपुगेको हो। अब त मधेसमा दलभित्रको राजनीति पनि संसदीय राजनीति जतिकै रोचक भएको छ। हृदयेश त्रिपाठी ले अब निर्णायक भुमिका खेल्नुपर्ने हुन्छ पार्टी एकीकरण मा। हृदयेश प्राइम मिनिस्टर मटिरिअल मान्छे त हो, तर प्राइम मिनिस्टर बनने नबनने त समयले बताउने कुरा हो। सीके पनि विदेश पढेको, बृक्खेश पनि बिदेश पढेको, हृदयेश पनि बिदेश पढेको। प्रचंड चाहिं जङ्गलमा पढेको।
राजेन्द्र महतो को केपी ओलीसँग सीधा क्लैश भएको मधेस आंदोलन ताका। तर केपी ओलीसँग कम उपेंद्र यादव सँग बढ़ी बाझ्ने नेता पो हुन कि राजेंद्र!
आफ्नो निजी राजनीतिक करियर भन्दा मधेसको मुद्दा लाई माथि मान्नुपरयो र समाधान तर्फ जानुपर्यो। महाधिवेसनले यदि उपेन्द्र यादवलाई अध्यक्ष निर्वाचित गरेछ भने त्यसलाई मान्छु भन्ने माइंडसेट बनाउनु परयो। पार्टीमा अध्यक्ष नै त सबै थोक होइन। अरु पनि शीर्ष पद हुन्छन्।
र यी सात पनि महाधिवेशन सम्म मात्र हो। महाधिवेशन पछि त एक जना मात्र निर्वाचित अध्यक्ष हुने हो। र अहिले लाई यी सात बाहेक अरु लाई एउटा पोलिटब्युरो बनाएर राखदिने। राजपा का अध्यक्ष मंडलका अरु हरु, त्यति नै संख्यामा फोरम का, सीके र हृदयेश का संगठनका मानिस। २१ जनाको पोलिटब्युरो।
सरकार सँग वार्ता सफल नभएको यो सांगठनिक एकीकरण न गरेर हो। आफ्नो आंगको भैंसी देख्ने।
ज्ञानेंद्र शाह ले विघटन गरेको संसद ब्युताउने जुन काम गरे अप्रिल २००६ को जनक्रान्ति पछि त्यो कुनै संविधान सम्मत कदम थिएन। त्यो एउटा नितान्त राजनीतिक कदम थियो। एउटा क्रांति को सुनामी लाई गरिएको सम्बोधन थियो। संविधान भन्दा माथि क्रांति हुँदो रहेछ। थुप्रै देशमा देखिएको, नेपालमा पनि देखिएको कुरा। सीके राउतले खोजेको जनमत संग्रह त्यस केटेगरी को कुरा हो। मधेसमा त्यस किसिमको क्रांति गर्छु र जनमत संग्रह लिन्छु भन्ने सोंच हो।
जुन मधेस का २२ जिल्ला को कुरा छ त्यस मधेसमा आज ४०% मानिस पहाड़ी मुलका छन। मलेरिया उन्मुलन पछि पहाड़बाट झरेर आएका मानिस छन। जनमत संग्रह यदि भएछ भने ती ४०% ले नेपाल भित्र नै बस्छु भन्ने ठुलो संभावना छ। त्यति मात्र होइन, बाँकी ६०% मध्ये पनि काँग्रेस, कम्युनिस्ट, फोरम र राजपा लाई मत दिने हरु पनि नेपाल भित्र नै बस्छु भन्ने हरु हुन। जनमत संग्रह गर्ने नै हो भने पनि सीके को लाइन को जित हुने संभावना अहिले देखिँदैन।
तर सीके ले नै उदाहरण दिने गरेका इराक को कुर्दिस्तान, स्पेन को केटलोनिआ, ब्रिटेन को स्कॉटलैंड मा अलग देश चाहने संगठन हरुले राजनीतिक पार्टी खोलेका छन, चुनाव लड़ेका छन, स्पेन र स्कॉटलैंड मा प्रान्तीय सरकार बनाएका, चलाएका छन। सीके राउत ले पार्टी नखोल्ने, चुनाव नलडने कारण के पर्यो?
म नेपाल सरकार लाई मानदिन भन्ने ठाउँ छ र? सीके को पासपोर्ट कुन देश को हो? सीके ले अहिले वार्ता र सम्झौता गरेको कुन देशको सरकार सँग हो? सीके ले जनमत संग्रह गर भनेर माग गर्दै आएको कुन देशको सरकार सँग हो? सीके राउत नेपाल देशको नागरिक हुन। होइन भने पाँच महिना जेल बसेका होइनन। पाँच महिना अपहरण मा बसेका हुन।
नेपालको कुनै पनि नागरिकले आफ्नो मानव अधिकार फिर्ता दिने गरी नेपाल सरकार सँग सम्झौता गर्न पाउँदैन। किनभने त्यो अधिकार ओली सरकार ले दिएको कुरा होइन। त्यो त संविधानले दिएको कुरा हो। त्यो संविधानको रक्षा गर्नु ओली सरकार को र त्यस्तो प्रत्येक सरकार को प्रथम कर्त्तव्य हो। सीके राउत लाई जनकपुर एयरपोर्ट मा स्वागत गर्न आएको भीड़ले कुन नारा लगायो भन्ने तर्क वितर्क नै गैर लोकतान्त्रिक हो। नारा जुन सुकै लगाउन पाइन्छ।
सीके राउत ले सम्झौता गरेर आफ्नो खुद को वाक स्वतंत्रता त हनन गर्न पाउँदैनन भने सीके ले नेपाल सरकार सँग सम्झौता गरेर आफ्नो कार्यकर्ता हरुको वाक स्वतंत्रता हनन गरिदिन पाऊँछन भन्ने सोंच नितांत गैर लोकतान्त्रिक चरित्र हो।
रेशम चौधरी लाई जन्म कैद को घोषणा ले नेपालमा विधिको शासन नरहेको देखाएको छ। आरोप लागेको व्यक्ति लाई सजाय घोषणा गर्दा त्यस व्यक्ति लाई अदालतमा उपस्थित गर्नु पर्ने हुन्छ। गरिएन। टीकापुर दुर्घटना सँग सांसद रेशम चौधरी लाई जोड्ने प्रमाण हरु अदालतमा प्रस्तुत गरिएको कसैलाई थाहा छैन। त्यस अदालती निर्णयलाई पुनरावेदन अदालतले प्रक्रिया नपुगेकै आधारमा उल्टाउनु पर्ने हुन्छ।
काठमांडु को सत्ता ले मधेस आन्दोलन सँग सम्झौता गर्ने तर सम्झौता पालना नगर्ने कति पटक गर्यो गर्यो। दर्जन पटक होला अहिलेसम्म। मधेस आन्दोलनले यदि त्यही व्यवहार देखाए काठमांडु को सत्ता ले अचम्म मान्ने त्यस्तो के कारण पर्यो?
ओली सरकार सँग मधेसको पक्षमा संविधान संसोधन गर्ने इमान्दारिता हुँदो हो त एक वर्ष पर्याप्त समय होइन र? बरु फोड़ र राज गर को व्यवहार छ। फोरम लाई सत्तामा काखी च्याप्ने, राजपा लाई पाखा लगाउने व्यवहार देखियो। दुबै सँग एकै पटक वार्ता गर्ने प्रयास देखिएन।
सीके राउत को तर्क नै त्यही रहिआएको छ। काठमांडु को सत्ता लाई मधेस आन्दोलनले विश्वास गर्ने ठाउँ नै बाँकी राखेन।
तर कुरा यहाँ राजनीतिक तर्क को छैन। कुरा यहाँ राजनीतिक रणनीति को छ। कुरा यहाँ टैक्टिस को छ।
सीके ले आफ्नो संगठनलाई एउटा नया मोड़मा लान सक्नुपर्छ। प्रचंड ले आफ्नो संगठन लाई हिंसाको बाटो त्याग्न लगाए। सीके ले जनमत संग्रह गर्न गराउन पनि संविधान संसोधन नै गर्नु पर्ने हुन्छ। त्यसका लागि पार्टी नै खोल्नुपर्छ, संगठन नै विस्तार गर्नुपर्छ, चुनाव नै लड्नुपर्छ भन्ने सन्देश दिन सक्नुपर्छ। अहिले का लागि जनमत संग्रह टाढा को लक्ष्य भयो। नजिक को लक्ष्य भनेको नेपाल सरकार सँग गरेको सम्झौता पालन गरेर संगठन विस्तारमा लाग्नु हो।
सहमति को भाषाले सहमति जनमत संग्रह का लागि भएको होइन भन्ने कुरा स्पष्ट छ। नेपालको अहिलेको संविधानले दिएको लोकतान्त्रिक बाटोमा अगाडि बढ्ने भनिएको छ। माओवादी भनेकै बन्दुक को बलमा राज्य कब्ज़ा गर्ने संगठन हो। त्यस्तो संगठन शान्ति प्रक्रियामा आउनु एउटा ठुलो मोड़ थियो। सीके को संगठन ले मधेस अलग देश नै भन्दै आएको हो। जनमत संग्रह नै भन्दै आएको हो। तर त्यो फेज अब समाप्त भएको मान्नु पर्छ। जसरी कि माओवादी को हिंसात्मक फेज एक समयमा आएर समाप्त भयो। सीके ले अब आफ्नो नेतृत्व क्षमता देखाउने बेला आएको छ। आफ्नो संगठन लाई एउटा मोड़ दिनुपर्ने अवस्था हो यो। मधेसीलाई समानता र समृद्धि दिलाउने उद्देश्य प्राप्ति का लागि यो कदम चाल्नुपरेको भन्न सक्नुपर्छ। मुख्य उद्देश्य मधेस अलग देश त कहिले पनि थिएन। मुख्य उद्देश्य त जहिले पनि मधेसीलाई समानता र समृद्धि दिलाउने भन्ने नै थियो। त्यो उद्देश्य लाई सीके ले झन बलियो सँग समायेका छन। आफ्नो मुख्य उद्देश्य लाई दरो सँग समाएर राजनीतिक धरातल को तथ्यपरक विश्लेषण गर्दै सोही अनुसार स्ट्रेटेजिक र टैक्टिकल कदम हरु चाल्नुपर्ने हुन्छ। होइन भने संगठन भुमरीमा फस्छ।
अहिलेको नेपालको संविधानमा अलग देश का लागि जनमत संग्रह गर्न पाउने कुनै प्रावधान नै छैन। त्यति मात्र होइन कुनै प्रदेश सरकारले त्यस किसिमको जनमत संग्रह गर्ने प्रयास मात्र गरे केन्द्र सरकारले प्रदेश सरकार बर्खास्त गर्ने प्रावधान छ। भने पछि लक्ष्य जनमत संग्रह नै हो भने पनि पहिलो लक्ष्य त्यस किसिमको संविधान संसोधन हो। त्यसका लागि मधेसी समुदाय को जनमत बटुल्नु पर्यो र जनजाति समुदाय लाई पनि रिझाउन सक्नुपर्यो।
भने पछि पार्टी निर्माण, संगठन विस्तार अनि पहाड़ पस्ने। फोरम, राजपा र राउत को गठबंधन एकीकरण गरेर यदि एउटै पार्टी बनाइन्छ भने अहिले संविधान संसोधनको पक्षमा शक्ति जम्मा हुन्छ। र संसोधन हुन बाँकी रहने कुरालाई अर्को चुनावमा एजेंडा बनाउन पाइयो। त्यो एकीकृत पार्टीले स्वीप गर्छ। मधेस र थरुहट मा स्वीप गर्यो भने काँग्रेस कम्युनिस्ट पार्टी सँग पहाडमा प्रतिस्प्रधा गर्न बाध्य हुन्छ।
फोरम, राजपा र राउत को गठबंधन एकीकरण गरेर यदि राष्ट्रिय फोरम नामको पार्टी बन्छ भने र त्यो पार्टी ले मधेसका २२ जिल्लामा ६५% मत र सीट लिन्छ भने र पहाडमा काँग्रेस र कम्युनिस्ट ले ५०-५० सीट र मत बाड़न पुग्छन भने राष्ट्रिय फोरम देशको सबैभन्दा ठुलो शक्ति पो बन्छ त।
त्यस अवस्थामा माग राख्ने होइन आफ्नो माग आफै पुरा गर्ने अवस्था आउँछ। भने पछि मधेसी समुदाय लाई अधिकार सम्पन्न बनाउन गर्नु पर्ने सबैभन्दा महत्वपुर्ण काम नै फोरम, राजपा र राउत को गठबंधन एकीकरण गरेर एउटै एकीकृत पार्टी बनाउनु हो। संगठन विस्तार गर्नु हो।
हृदयेश को स्वतंत्र राजनीतिक समुह लाई पनि मिसाउँदा चार जना सह-अध्यक्ष हुने पो हो कि?
सीके राउत को संगठन लाई यथास्थिति मा नै एउटा राजनीतिक पार्टीको रूप दिने हो भने त्यो अहिले नै मधेसको सबैभन्दा ठुलो दल बन्ने अवस्थामा छ। सीके ले पार्टी तत्काल खोल्नुपर्छ। आगामी चुनाव लड्नुपर्छ। तर चुनाव त वर्षौं टाढा छ।
पार्टी खोले पछि सीके ले विद्यमान लोकतान्त्रिक पद्वति मार्फ़त समस्या समाधान गर्ने सहमति अनुसार पहिला त फोरम, राजपा र ओली सँग नै वार्ता गर्नुपर्ने हुन्छ। सीके ले आफ्नो सम्पुर्ण राजनीतिक शक्ति अब संविधान संसोधन को प्रक्रिया मा लगाउनुपर्ने हुन्छ।
आन्दोलनको स्पिरिट एउटा हुन्छ। वार्ताको स्पिरिट फरक हुन्छ। अहिले नै ओली र सीके बीच जुन ब्रेकथ्रू (breakthrough) भयो त्यो एउटा सफल वार्ता को सटीक उदाहरण हो। दुबै पक्षले दैनिक मीडिया मा वक्तव्यबाजी गर्दै गरेका भए वार्ता सफल हुनु संभव थिएन। दुबै पक्षले आफुले खोजेको सबै कुरा पायेन। दुबैले एकले अर्कोको कुरा केही हदसम्म सुन्यो।
संविधान संसोधनको मुद्दा त्यसरी नै अगाडि बढाउनुपर्ने हुन्छ। पहिलो कुरा त एउटा सानो टोली बनाउनुपर्ने हुन्छ। एकले अर्काको कुरा सुन्नुपर्ने हुन्छ। ब्रेकथ्रू (breakthrough) नहुँदा सम्म मीडिया बाट टाढा बस्नुपर्ने हुन्छ।
मधेसको कुरा नसुन्ने हरु भारतको कुरा गर्छन, मधेसको कुरा गर्दैनन। नेपाली र भारतीय नागरिक बिहे गर्दा दुबै देशको नागरिकता कानुन उस्तै हुनुपर्छ भन्ने पहाड़ी पक्ष को माग हो। त्यो नाजायज होइन त। मधेसी नेता हरुले खोइ त्यो कुरा सुनेको? अर्को पक्षको कुरा नै नसुन्दा वार्ता अगाडि बढ्छ त?
पार्टी खोल्नु र चुनाव लड्नु बीच सीके ले गर्नु पर्ने दुई कुरा छ। एक, संविधान संसोधन लाई टुङ्गोमा पुर्याउनु। दुई, फोरम, राजपा र गठबंधन को सांगठनिक एकीकरण। एउटै पार्टी बनेर अर्को चुनाव स्वीप गर्नु पर्छ। यादव, महतो र राउत सह-अध्यक्ष बन्नुपर्छ। मधेसको प्रत्येक जिल्लामा त चुनाव लड्नुपर्छ पर्छ, पहाड़ पनि पस्नुपर्छ।
आप सीके राउत के विचारधारा से असहमत हो सकते हैं। लेकिन एक शांतिपुर्वक अपने बात रखनेवाले व्यक्ति को, शांतिपुर्वक संगठन निर्माण करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार सिर्फ उस राजनीतिक व्यवस्थामें किया जा सकता है जो कि लोकतान्त्रिक नहीं है। ये मानव अधिकार का हनन है। जिस देशमें चुनाव हो वो लोकतंत्र है ऐसी बात नहीं है। लोकतंत्र होना नहोना मानव अधिकार से सम्बंधित बात है। चुनाव तो तानाशाह भी कराते हैं।
क़ानून के शासन का एक नियम है कि एक ही आरोप पर एक व्यक्ति को एक से ज्यादा बार मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है। लेकिन नेपाल में कानुन का शासन है ही नहीं। पहली बार जब सीके राउतको गिरफ्तार किया गया तो नेपालके सर्वोच्च अदालत ने उन्हें रिहा करवाया। क्यो कि नेपालके संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि वाक स्वतंत्रता प्रत्येक नागरिक का अधिकार है।
लेकिन उसके बाद भी बार बार कइयों बार गिरफ़्तारी हुइ। ये मुसा बिरालो के खेल की तरह हो गया।लोकतंत्र का उपहास होता रहा है।
इस बार तो सर्वोच्च अदालत भी खेल में शामिल हो गया। इस से बड़ा मजाक क्या हो सकता है?
सीके का विश्लेषण सही है कि नेपालके भितर मधेसीको राजनीतिक समानता प्राप्त नहीं है। उस समस्याका समाधान फोरम राजपा वाले कहते हैं संघीयता है। सीके फरक विचार प्रस्तुत करते हैं। संघीयता है तो आ गया आपका संघीयता, तो फिर अब मधेसीको समानता क्यों नहीं मिला?
आप सीके के विचार से असहमत हो सकते हैं। और मैं हुँ। मेरा विचार है लक्ष्य होना चाहिए दक्षिण एशिया का राजनीतिक एकीकरण। मधेस अलग देश क्यों, सारे उपमहाद्वीपको ही एक देश बना दो।
लेकिन मैं सीके के विचार से असहमत हुँ इसका मतलब तो ये नहीं निकलता कि सीके को जेल में ठुँस दो। ये क्या हो रहा है ये? अप्रिल २००६ के १९ दिन के क्रांति में जो नेपाली शहीद हुए वो क्या इसी के लिए शहीद हुवे थे? मधेसी क्रांति १, २, ३, ४ में जो शहीद हुवे वो क्या इसी के लिए शहीद हुवे? नेपाल गणतंत्र के राजनेता क्या सबके सब नवराजा बन गए हैं?
बस भी करो ये तानाशाही।
सीके राउत की मैने आलोचना की है और इसी ब्लॉग पर की है। चुनाव के समय किया। आप इस ब्लॉग के पिछले पन्नों में जा के अभी देख सकते हैं। मैंने कहा है कि आप स्पेन के केटलोनिआ का उदाहरण देते हैं, स्कॉटलैंड का उदाहरण पेश करते हैं। लेकिन आप जिन लोगों की बाते करते हैं वो तो चुनाव लड़ के अपने अपने प्रांतो में सरकार बनाए बैठे हैं। आप क्यों नहीं पार्टी खोलते? आप क्यों नहीं चुनाव लड़ते? आप क्यों नहीं प्रान्तीय सरकार बनाने की सोंचते? महात्मा गांधी की भारतीय कांग्रेस पार्टी अंग्रेज शाषित भारत में चुनाव लड़ा करती थी, और प्रांतीय सरकार बनाया करती थी। आप चुनावी प्रक्रिया से अलगथलग रह के strategic, tactical गलतियाँ कर रहे हैं। ऐसा मैंने कहा है।
लेकिन कोइ अहिंसावादी राजनेता अगर strategic, tactical गलतियाँ करे तो उसे जेल में ठुँस दो, ये कौन सा न्याय है?
सन २००५-२००६ में अमेरिका में रह रहे दो तीन लाख से उपर नेपाली में मैं अकेला था जिसने फुल टाइम नेपालके लोकतान्त्रिक आंदोलन के लिए काम किया। जो नेपाली दो नंबर पर था समय देने के हिसाब से उसने मेरे तुलना में २०% भी समय नहीं दिया।
वो मेरा योगदान मैंने इसलिए नहीं किया कि ये दिन देखना पड़े।
एक राजनीतिक शाश्त्र के अध्येता और विद्यार्थी होते मैं ये देख रहा हुँ कि मधेस अलग देशकी संभावना के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा भु-राजनीति है। भारत और चीन दोनों ही नहीं चाहेंगे कि नेपाल एक से दो देश बन जाए। जबकि भारत चाहता है कि मधेसीको समानता मिले। नाकाबंदी ही कर दिया था।
अगर कोइ बर्लिन की दिवार ढहने साइज का भु-राजनीतिक भुकम्प आ जाये और भारत और चीन ही एक से १० देश बन जाए तो अलग बात है। उस परिस्थिति में मधेस अलग देश संभव है। लेकिन उसकी संभावना क्या है? बल्कि उलटे युरोप के १०-१२ देश एक देश बन जाना चाहते हैं।
लेकिन यहाँ बात भु-राजनीति की नहीं है। मुद्दा मानव अधिकार की है। आप किसी की वाक स्वतंत्रता हनन नहीं कर सकते। नेपाल में लोकतंत्र का उपहास बंद करिए। सीके को तुरन्त रिहा करिए। बन्दर का खेल नहीं लोकतंत्र। लोकतंत्र की अपनी मुल्य मान्यताएँ होती है।
नेपालके नेता लोग कहते रहते हैं विदेश में रह रहे लोग वापस आ जाओ। गया तो वापस सीके। क्या हालत कर के रखे हो? कुछ लोग होते हैं बौद्धिक रूप से प्रखर। कुछ संगठन में कुशल होते हैं। जैसे कि गिरिजा कोइराला संगठन में कुशल थे। लेकिन वो कोइ बौद्धिक लोग नहीं थे इस बात को वो खुद मानते थे। सीके दोनों में माहिर हैं। इस बात की कदर करो। देश के भविष्य की सोचो।
**नेपाल फर्कौं महाअभियान**
"झुपडी नै भए पनि आफ्नो घर सुन्दर बनाउनु र सुविधासम्पन्न भए पनि डेरा सिँगार्नुमा आकाश–जमिनको फरक छ। मरुभूमिमा एउटा विशाल वृक्ष हुनु र घना जंगलमा एउटा रूख हुनुमा ठूलो अन्तर छ।"https://t.co/Ef52B4CqKv
विश्व इतिहासमा गरीबी निवारण का लागि रेमिटेंस भन्दा ठुलो आईडिया आएको छैन। नेपाल बाहिर जाने हरु देश र परिवारको कम माया भएका मानिस होइनन। नेपालका नेता ले आफ्नो आंग को भैंसी नदेख्ने प्रवासी नेपाली को आंगको जुम्रा देख्ने कुरा भयो रविन्द्र मिश्र को "महाअभियान।"
डुबिसकेको चीनलाई पुनर्जन्म दिने देङ स्याओ पिङ हुन् वा भारतमा महात्मा गान्धी र जवाहरलाल नेहरू, मलेसियामा महाथिर महमद हुन् या सिंगापुरका ली क्वान यु, सबैले कुनै न कुनै रूपमा विदेशी शिक्षा र अनुभव प्राप्त गरेका थिए। अफ्रिकाको अनुभव त अझै चकित पार्ने खालको छ। सन् २०११ मा ४० वटा देशको अध्ययन गरेर जर्मनीको एउटा अन्तर्राष्ट्रिय अनुसन्धान संस्थाले तयार पारेको प्रतिवेदनले विदेशमा अध्ययन गरेका नेताहरूले देशको राजनीतिक, सामाजिक र आर्थिक विकासमा स्वदेशमै अध्ययन गरेका नेताहरूले भन्दा बढी सकारात्मक प्रभाव पारेको निष्कर्ष निकालेको थियो। नेपालको रूपान्तरणमा विदेशमा रहेका नेपालीहरूले आमूल परिवर्तनकारी संवाहक (क्याटलिस्ट) को भूमिका निर्वाह गर्न सक्छन्।
प्रवासी नेपाली कोही पनि नेपाल नै नफरकिउन भन्ने मेरो तर्क हुँदै होइन। यस्तो अभियान किन चलाएको भन्ने पनि मेरो प्रश्न होइन। तर यो भावावेग मा आएर तेर्स्याइने तर्क हरुले ५० लाख बढ़ी प्रवासी नेपालीको अपमान चाहिँ गर्नु हुन्न। भारत लाई पनि गन्ने हो भने र नगनी सुख? भारत प्रवास होइन भने के हो? भारत लाई पनि गन्दा र सारा इतिहास हेर्दा आजको म्यादमा नेपाल भित्र भन्दा नेपाल बाहिर नेपाली बढ़ी छन। तीन करोड़ नेपालमा छन। तीन करोड़ बढ़ी नेपाल बाहिर रहेको अनुमान गर्न सकिन्छ। सन १९५० को नेपालको जनसँख्या र त्यति बेला देखिको जनसँख्या वृद्धि दरको ग्राफ कोर्दा नेपालको जनसंख्या आज ६ करोड़ बढ़ी पुगेको हुनुपर्ने। भने पछि बाँकी ३ करोड़ कहाँ गए? कहिले नफर्किने गरी भारत पसे। सोझो अनुमान। भारत फेरि समुन्द्र। त्यहाँ मान्छे को लेखाजोखा छैन। राशन कार्ड जसले पनि बनाउन पाउने र राशन कार्ड नै त्यहाँ नागरिकता जस्तो।
दक्षिण एशिया बाहिर नेपाली हरु ठुलो संख्या मा जान थालेको सन १९९० पछि हो, अर्थात बहुदल आएपछि। त्यो संख्या नै ५० लाख काटिसक्यो। ठ्याक्क कति भन्ने तथ्यांक नै छैन।
र यो रेमिटेंस भन्ने कुरा ठुला ठुला अर्थविद हरुले नदेखेको कुरा। भए पछि नोटिस गरेको मात्र हो। खाड़ी देशमा गएर पसिना चुहाएर निरक्षर नेपाली ले आफ्ना छोराछोरी लाई "बोर्डिंग स्कुल" मा पढाएका छन। शिक्षाको महत्व नबुझेर त होइन होला।
नेताले जॉब क्रिएट गर्नुपर्यो भन्ने सोंच नै छैन। तर जॉब क्रिएट गर्ने हरु को बाटो मा तगारो न बन्देउ भन्ने हो। नेपालमा ब्यूरोक्रेट देखि नेता सम्म ले पाइला पाइला मा तगारो हाल्ने काम गर्ने गरेका छन। भने पछि नेपाल भित्र जॉब क्रिएट हुन पनि नदिने, अनि जागीर खोज्दै नेपाली विदेश जाँदा judgmental कुरा गर्ने?
नेपालले आज मैनपावर एक्सपोर्ट गरेको अरु सबै इम्पोर्ट गरेको छ। चामल देखि लिएर सब थोक। त्यो बलियो अर्थतंत्र अबश्य होइन। तर तथ्यपरक र व्यावहारिक ढङ्गले सोच्नुपर्ने हुन्छ। पहिलो कदम त विदेश काम गर्न जाने लाई सकेसम्म सहयोग नै गर्नु पर्छ। जाने नै भए हाम्रो तर्फ बाट पुरा सहयोग छ भन्नु पर्छ। सरकारी निजी सबै तह बाट।
प्रमुख देश हरु जहाँ नेपाली हरु जाने गरेका छन तिनी सँग नेपाल सरकार ले संधि समझौता हरु गर्नु परयो। वीसा आदि का लागि पहल गर्नुपर्यो। पहिलो पटक उड़न लागेका हरु का लागि सहुलियत ब्याज दर मा लोन मिलाउनु पर्छ कि? विदेशमा हुँदा तत तत दुतावास का ले सुरक्षा मा चासो लिनुपर्यो। जॉब मार्केट बारे जानकारी प्रवाह हुनुपर्यो। विदेश जानु अगाडि देशमैं केही सीप सिक्न सकिन्छ कि, सीप सिकेर गए बढ़ी कमाइन्छ कि? विदेशमा गएर कमाएको पैसाले देशभित्र बिजनेस व्यापार का लागि लगानी गर्ने अवसर हरु खोज्नु पर्ने हुन्छ। होइन भने जसले पनि जग्गा नै किन्ने घरै बनाउने भए पछि रियल इस्टेट मार्केट ले आकाश छुने तर देश भित्र रोजगारी सिर्जना को अवस्था एक पीढ़ि पछि जस्तातस्तै हुने डर रहन्छ।
चीन ले सन १९९० पछि यस्तो फड्को मारयो कि आज अमेरिका लाई नै प्रतिस्प्रधा दिन भ्याएको छ। तर चीन ले अगाडि बढ़ने निर्णय गरे पछि सबैभन्दा भर परेको समुह को भन्दा प्रवासी चिनिया। पुँजी लगाउने मानिस त चाहियो। त्यस्तै आज देश विकास गर्ने सपना देख्ने रविंद्र मिश्र जस्ता ले प्रवासी नेपाली प्रति सकारात्मक सोंच राख्न सक्नु पर्छ। फर्केको राम्रो तर फर्किन नसक्ने ले पनि योगदान गर्न सक्ने उपाय हरु प्रस्तुत गर्नु पर्छ। नेताले गर्ने भनेको पालिसी मेकिंग नै हो।
राम्रो पालिसी फ्रेमवर्क बनाउन सकेको खण्डमा प्रवासी नेपाली मात्र किन विदेशी नै पनि ओइरो लागेर आइपुग्छन।
आज नेपाल र मलेसियाका बीच सम्पन्न कामदार भर्ना, रोजगार र फिर्ता सम्बन्धी समझदारी पत्र (MOU) मा हस्ताक्षर भयो । यो दुबै देशको लागि ऎतिहासिक उपलब्धी हो । साथै मलेसिया जाने नेपाली श्रमिकका लागि राहत पुर्याउने सकारात्मक परिणाम पनि हो । pic.twitter.com/r9BqxdZR2m
आज यु.ए.इ.का राजदुत Saeed Hamdan Al Naqei संग मन्त्रालयमा भएको भेटघाटमा शुल्क बिना जाने व्यवस्था र तोकिएको सर्त अनुसार तलब र अन्य सुविधा दिनु पर्ने सम्बन्दमा छलफल भयो । सकारात्मक परिणामका लागि मन्त्रालय प्रयत्नशील रहने छ । pic.twitter.com/6Fdar8pAKu